भारत के सबसे सफलतम कप्तान कहे जाने वाले महेंद्र सिंह धोनी का जन्मदिन हो तो क्रिकेट से जुड़ी बहुत सारी यादें आपके ज़ेहन के रूबरू हो जाती हैं। क्या करा महेंद्र बाहुबली ने आपके ज़ेहन से जुड़ने के लिए? क्यूँ इस क्रिकेटर को एकदिवसीय का सबसे बड़ा फ़िनिशर माना जाता है?
माही की बात हो तो सबसे पहले एकदिवसीय विश्व कप का ताज़ याद आता है हर हिंदुस्तानी को, वह ताज़ जो भारत को २८ साल के इंतज़ार के बाद मिला था। तो क्या कहानी है २०११ विश्व कप के फ़ाइनल की? आइये देखते हैं वो मंज़र जिसने श्रीलंका की टीम पर खंज़र चला दिया।
यह कहानी है उन दो बड़े अर्धशतकों की, जो एक शतक और एक क़रीबन अर्धशतक पर विजयी हुए थे।
क्या हुआ था २०११ विश्व कप के फाइनल मुक़ाबले में?
दिन था शनिवार और तारीख़ २ अप्रैल- वित्तीय वर्ष का दूसरा दिन। दिन भी ऐसा जिसने लंका की टीम का गणित ही नहीं उनके सामने रनों का वित्तीय संकट ला दिया था।
स्टेडियम था मुंबई का वानखेड़े जो मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बैरिस्टर शेषराव वानखेड़े के नाम पर है। एकदिवसीय संख्या थी ३१४८– मुक़ाबला भारत और श्रीलंका का। मेहमान श्रीलंका ने टॉस जीत कर बल्लेबाज़ी का फैसला लिया। श्रीलंका की टीम बल्ले के महारथियों से लबरेज़ थी, दिलशान, संगकारा और जयवधने किसी भी आक्रमण को नेस्तनाबूद करने के लिए तैयार खड़े थे, साथ था थरंगा, समरवीरा और कापुगेदड़ा का। मतलब रनों का सैलाब होना था।
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वहीं उनकी गेंदबाज़ी भी यॉर्कर किंग मलिंगा और फिरकी के जादूगर मुरलीथरन के मज़बूत कन्धों पर टिकी थी ।
भारत की बात करें तो भारत की टीम में खुद क्रिकेट के भगवान् थे, भगवान् और जीत हमेशा साथ साथ ही चले हैं, ये मैच अलग कैसे होता! क्रिकेट के भगवान सचिन तेंडुलकर के अलावा भारतीय खेमे में क्रिकेट के युवराज युवराज सिंह, तूफानी सेहवाग, चिर गंभीर गौतम, टर्बनेटर हरभजन और २००३ विश्व कप के चौथे सबसे बड़े शिकारी ज़हीर थे।
मुक़ाबला कांटे का था- उपमहाद्वीप की दो सबसे मज़बूत टीमों के बीच।
महेला जयवर्धने बने रक्षक
बल्लेबाज़ी करने उतरी लंकाई टीम को २ शुरुआती आघात लगे, पहला ज़हीर के धारदार गेंद से जो थरंगा के बल्ले का किनारा लेकर वीरू के हाथों में समा गयी। फिर उड़ी दिलशान की गिल्लियां, जो टर्बनेटर की गेंद का शिकार हुए।
ख़तरे में ही रक्षक की पहचान होती है, लंकाई टीम के संकटमोचक हुए महेला जयवर्धने जिन्होंने आते ही ना केवल एक छोर थाम लिया बल्कि ११७ की स्ट्राइक रेट से १०३ रनों की पारी खेल गए। अपने शतक के दौरान उन्होंने कुमार संगकारा के साथ ६२, समरवीरा के साथ ५७, और कुलसेकरा के साथ ६६ रनों की साझेदारी की।
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खेल पर श्रीलंका की पकड़ का अन्दाज़ा इस बात से ही लग जाता है कि इससे पहले के विश्व कप फाइनल में पहले बल्लेबाज़ी करने वाली टीम ने नौ में से सात मुक़ाबले जीते थे और शतक बनाने वाले हर बल्लेबाज़ की टीम विश्व विजेता बनी थी।
गंभीर बने विजय के रचयिता
२७५ के लक्ष्य को भेदने उतरी भारतीय टीम को पहले ही ओवर में लसिथ मलिंगा ने झटका दिया तो लगा कि भारत को जीत की ओर ले जाने वाली गाड़ी पटरी से उतर गयी। फिर क्रिकेट के भगवान् तेंडुलकर जब छठे ओवर में मलिंगा का शिकार बने तो लगा कि ये २००३ वाला किस्सा होने वाला है। पर भारत के लिए पिच पर रक्षक बने गंभीर और विराट कोहली। दिल्ली के इन दोनों जांबाज़ों ने भारतीय ख़ेमे को ३१/२ से ११४ के स्कोर पर ले गए।
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भारतीय क्रिकेट प्रेमियों ने अभी चैन की सांस लेनी शुरू ही की थी कि विराट दिलशान की फिरकी का शिकार होकर चलते बने। जब अनहोनी का डर हो तो पिच पर धोनी हो- ऐसा हर भारतीय चाहता है । अनहोनी को होनी करना तो महेंद्र बाहुबली के बाँय हाथ का खेल है।
महेंद्र सिंह धोनी बने महेंद्र बाहुबली
संकटमोचक गंभीर और फिनिशर धोनी स्कोर को २२३ पर ले गए १०९ रनों की साझेदारी से। २२३ के स्कोर पर जब गंभीर पिच से विदा हुए तो वो अपने शतक से मात्र ३ रन दूर थे। तो समझ लीजिये जीत की राह दिखने लगी थी।
विकेट पर आये अब भारत के युवराज। महेंद्र सिंह धोनी और युवराज ने ५४ रनों की साझेदारी करते हुए लक्ष्य को भेद दिया। गंभीर- धोनी और फिर धोनी- युवराज साझेदारी के दौरान तो लगता था जैसे श्रीलंकाई गेंदबाज़ तो पेले जाने के लिए ही आये थे, और हुआ भी ऐसा ही।
महेंद्र बाहुबली ने ना केवल अपना बाहुबल दिखाया बल्कि नाबाद रहकर भारत को विश्व विजेता बनाया। आपने अगर मैच की आखिरी गेंद पर महेंद्र बाहुबली का छक्का और रवि शास्त्री की टिप्पणी नहीं सुनी, तो आप क्रिकेट प्रेमी नहीं। इस जीत की झंकार आज भी हर भारतीय के दिल को धड़का जाती है।
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