आज बात करते हैं कि कैसे जीती भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक खेलों में स्वर्ण पदक। यहाँ हम भारतीय हॉकी की सबसे बड़ी जीत की आख़िरी कड़ी की बात करेंगे और करेंगे बात उन नायक या महानायकों की, जिन्होंने अपनी टीम के चक्रव्यूह रचे और विपक्षी टीम के चक्रव्यूह तोड़े। किन हालात में पहुंची भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 में, ये पहले जानते हैं।
अपराजेय रहने का दौर
ओलिंपिक खेलों में भारतीय हॉकी का काफ़ी गौरवशाली इतिहास रहा है। ध्यानचंद और आज़ादी के पहले के भारत के हॉकी में दबंगई के दौर को जोड़ लें तो भारत ने लगातार 6 ओलिंपिक गोल्ड जीते हैं। इस दौरान 2 ओलिंपिक खेल द्वितीय विश्व युद्ध की भेंट चढ़ गए थे, वरना शायद ये 8 होते। कुछ ऐसा ही आधिपत्य था भारतीय हॉकी का खेल पर।
खेल पर भारतीय हॉकी के प्रभुत्व का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उस दौर के करीबन सारे रिकॉर्ड आज तक जीवंत हैं, कोई भी टीम या खिलाड़ी उसे तोड़ नहीं पाया। रिकॉर्ड जैसे कि एक मैच में सबसे ज्यादा गोल का लॉस एंजेलेस 1932 में बना रिकार्ड्, या ओलिंपिक फ़ाइनल में सबसे ज्यादा गोल का व्यक्तिगत रिकॉर्ड बलबीर सिंह दोसांझ का, या फिर लेस्ली क्लॉडियस और उधम सिंह कुलर का सबसे ज्यादा ओलिंपिक मेडल जीतने का रिकॉर्ड। किन हालात में पहुंची भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 में जानने के लिए अपराजेय भारतीय हॉकी का दौर भी जानना चाहिए।
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भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 से पहले
आज़ादी के बाद भारतीय हॉकी टीम को काफ़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था नए सिरे से टीम खड़ी करने में। कारण ये था कि कुछ महत्वपूर्ण खिलाड़ी अब पाकिस्तान में थे। हालाँकि भारत ने उन कठिनाइयों पर विजय पायी और लगातार तीन ओलिंपिक गोल्ड जीते। भूमिका में थे बलबीर सिंह दोसांझ, जो बलबीर सिंह सीनियर के नाम से भी जाने जाते हैं। वो इन तीन में से दो ओलिंपिक खेलों में भारत के तरफ से सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी बने थे।
1960 में रोम में हुआ ओलिंपिक खेल एक दौर का अंत था, अविजित रहने का और भारत ने ओलिंपिक विजेता का ख़िताब खोया था और पाकिस्तान बना था ओलिंपिक विजेता। हालाँकि टोक्यो में हुए 1964 के ग्रीष्मकालीन खेलों में भारत ने अपना खिताब वापस पा लिया था पर ये खेल में भारत के प्रभुत्व के कम होने के दौर की शुरुआत कर गया था।
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और भारत का प्रदर्शन गिराव की तरफ बढ़ने लगा था। 1968 और 1972 के ओलिंपिक खेलों में भारत तीसरे पायदान पर चला गया था पोडियम और ओलिंपिक मेडल के। शायद ये यूरोपीय हॉकी के आने वाले दौर का इशारा करने लगा था और खेल मैदानों से एस्ट्रो टर्फ की ओर जाने लगा था। 1976 के ओलिंपिक खेल एस्ट्रो टर्फ पर हुए थे। मोंट्रियल में हुए इस ओलिंपिक संस्करण में तो भारत 7वें स्थान पर चला गया था। ये थे वो हालात जिनमें पहुंची भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 में।
भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 में
वासुदेवन भास्करन के नेतृत्व में गयी थी भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 ग्रीष्मकालीन खेलों में। भारत अभी नए हॉकी सतह पर अपने पाँव ज़माने की कोशिश ही कर रहा था जब ये ओलिंपिक खेल हुए। पश्चिमी जर्मनी, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड और ब्रिटेन ने खेलों का बहिष्कार किया था जिससे भारत को थोड़ी आसानी रही इन खेलों में। फ़िर जरुरत थी अच्छा खेल कर मौके को पूरी तरह भुनाने की।
और यही कर गयी सुरिंदर सिंह सोढ़ी, दविंदर सिंह के गोल नेतृत्व में भारतीय हॉकी मास्को 1980 में। मोहम्मद शाहिद बने जीत के सूत्रधार और उन्होंने गोल करने के मौके बनाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा शायद। और इसका फ़ायदा भारत की अग्रिम पंक्ति को मिला। टूर्नामेंट में सोढ़ी और दविंदर सिंह के अलावा गोल करने वाले भारतीय खिलाड़ी थे वासुदेवन भास्करन, ज़फ़र इक़बाल, मोहम्मद शाहिद, मर्विन फर्नांडिस, महाराज कृष्ण कौशिक, राजिंदर सिंह और अमरजीत राणा। यानि कि 11 खिलाड़ियों वाले खेल में 9 खिलाड़ियों ने सामने से गोल करने में अपना योगदान दिया और अगर पूरी टीम को जोड़ लें तो 16 में से 9 ने।
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तो ऐसे जीती थी भारतीय हॉकी मॉस्को 1980 ग्रीष्मकालीन खेलों में। ये था भारतीय हॉकी का अलग अलग दौर का लेखा जोखा। कमेंट्स में जरूर लिखें कि इस खेल से जुड़ी और क्या रोमांचक यादें हैं आपकी जेहन में।
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— SportsCrunch (@SportsCrunch) July 15, 2020
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